Thursday, May 14, 2009

हम हिन्दु किसको कहते हैं?

हम हिन्दु किसको कहते हैं?
हम हिन्दु उसको कहते हैं;
जो भारत माता को अपना कहता है,
धमनी में जिसके भारत माता का रक्त ही बहता है,
जो इस धरती का इतहास स्वीकार करे,
जो इस धरती के पुत्रों का वंशज स्वयं को कहता है।

किन्तु हिन्दु वह नहीं जो
भारत मां को अपनी मात न माने,
गौरवशाली निज अतीत को
जो अपना इतिहास न माने,
सम्प्रदाय मजहब के चक्कर में
जो अपनी जात न माने,
भारत मां के मान बिन्दुओं
को अपनी सौगात न माने।

पन्थ सम्प्रदाय या जाति
हिन्दु की पहचान नहीं है,
वह हिन्दु क्या जिसको मानव जाति का
सम्मान नहीं है।

भारत भू पर रहता हो
इसके टुकड़ों पर पलता हो,
है अहिन्दु वह निश्चित ही
चाहे कोई भी भारतवासी,
जो हिन्दु संस्कृति- संस्कारों को
और हिन्दु विचार न माने॥

Monday, May 11, 2009

ये अभागा राष्ट्र

मैं रहा सीमित
मेरे संसाधनों में,
अचाहा अतिरिक्त
जैसे परिजनों में; मेरे व्रत मेरी कसौटी
शुभ्र है मैं जानता हूं,
किन्तु ये सब व्यर्थ है
अधुना मनों में।
मेरे हृद् में राष्ट्र की संवेदना है
तीव्र जाग्रत सांस्कृतिक संचेतना है,
ये अभागा राष्ट्र किन्तु सुप्त है क्यों?
मन को मेरे भेदती ये वेदना है॥

Friday, February 20, 2009

‘मातृ देवो भव’

जिस नारी का स्पर्श जगाता काम भाव पुरुषों के मन में,
अथवा होता शील भंग नर का जिसके केवल दर्शन में।
उग्र रूप देवी का भय उपजाता है दानव को रण में,
शान्त स्वरूपा वह नारी हर सकती पीड़ा को इक क्षण में॥
जिन उत्तुंग हिमशिखों की ज्वाला भस्मित करती है मोहन में,
शिशु की विकल क्षुधा का पोषक क्षीर भरा उस पावन स्तन में॥।
नारी ही ब्रह्मा का मूर्त्तरूप धरे प्रकटी धरती पर,
विष्णु रूप नारी ही करती है उपकार सदा मानव पर,
शिव स्वरूप में नारी है कल्याणमयी मां,
स्वयं हलाहल पीती शिशु की प्राणमयी मां।
यों ही नहीं ‘मातृ देवो भव’ कहा ऋषि ने,
पूज्य मान पूजा की थी साकार ऋषि ने,
नारी जहां हो पूजित वहां देव बसते हैं,धर्मशास्त्र के शब्द सदा ये ही रटते हैं॥

Friday, February 13, 2009

Valentine Day.

मर्यादा और शील न छोड़ो, निज संस्कृति से नाता जोड़ो,
अनुचित है इसको अपनाना, छोड़ो valentine को छोड़ो।

आड़ में इसके भारतीयता घुट अपना दम तोड़ रही है,
पश्चिम की बेमेल विकृति हमें कहां ला मोड़ रही है;
तनिक ठहर कर सोचो तो फिर चाहे जहां स्वयं को मोड़ो,
अनुचित है इसको अपनाना, छोड़ो valentine को छोड़ो।

भाई बहन का रक्षा बन्धन होली का निष्पाप मनाना,
भैय्या दूज के दिन बहना का भाई के माथे तिलक लगाना;
अन्य अनेक पर्वों पर संबंध शीलता से तुम जोड़ो,
अनुचित है इसको अपनाना, छोड़ो valentine को छोड़ो।


है कोई सभ्यता जहां हो करवा चौथ सदृश व्रत उत्तम,
कैसे जग को पिला जलामृत यहां नारियां रहतीं जल बिन;
इन्ही व्रतों उपवासों सा कुछ नया ही तुम आयाम टटोलो,
अनुचित है इसको अपनाना, छोड़ो valentine को छोड़ो।

valentine प्यार नहीं है, ये अच्छा संस्कार नहीं है,
valentine जो होता है, प्यार का वह व्यवहार नहीं है
व्यवहारिकता के लिये सही प्यार को इसमें नहीं सिकोड़ो,
अनुचित है इसको अपनाना, छोड़ो valentine को छोड़ो।

Thursday, February 12, 2009

TV Add........................... कंडोम

बस कंडोम खरीदो, यही समझदारी है;

फ़्लर्ट करो एंज्वाए करो, दुनियादारी है।

बच्चे बूढ़े सभी कहीं भी सैक्स करें, पर,

है कंडोम तो ये ही समझदारी है॥

ब्रह्मचर्य, संयम, संस्कार- पुरानी बातें,

नया है ये रंगीन करो बस अपनी रातें।

कितनी ही कन्याओं से संबन्ध बनाओ;

पर कंडोम रखो संग यही समझदारी है

अपनी बहन बहू बेटी को, भेजोगे तुम Pub में?

अपनी बहन बहू बेटी को, भेजोगे तुम Pub में?

नग्न वसन से नहलाओगे क्या मदिरा के Tub में?

नहीं तो प्यारे मत इतना तुम शोर मचाओ,

संस्कृति मर्यादा को कुछ तो कहीं बचाओ।

जिस समाज में नैतिकता का क्षय होता है,

पाप कई पीढ़ियों वह समाज ढोता है।

माना तुम गुलाम हो चुके भाषा से हो,

हिन्दु नहीं रह पाए तुम परिभाषा से हो;

आशा और विश्वास जिन्हें अब भी है तुम पर,

अपना नहीं तो उनका ही विश्वास बचाओ।

नहीं तो प्यारे मत इतना तुम शोर मचाओ,

संस्कृति मर्यादा को कुछ तो कहीं बचाओ।

Saturday, February 7, 2009

कविता

रचनाएं कैसे बनती हैं?
रचनाएं ऐसे बनती हैं………….
भाव विह्वल हो कर मनुश्य जब एकाकी होता है,
प्रकरण कोई बार बार मन पर हावी होता है
विविध रूप घटना के मन में विकसित हो सहसा ही
चित्र कोई मानस पर उसका सम्पादित होता है।
ऐसे में यदि मनुज पत्र पर निज भाषा शब्दों में
भावपूर्ण मन से लिख डाले कोई छन्द या दोहा
उसका वो ही चित्र लेखनी से उस भाव विह्वल की
पाठक अथवा श्रोता के मन पर अंकित होता है।
अभिव्यक्ति भावों की ये ही कविता कहलाती है,
पाठक के मन पर ये सहज प्रभाव छोड़ जाती है।

प्रेरणा

प्रेरणा के बिना कुछ भी हो नहीं पाता सरल है,
प्रेरणा से मनुज पी जाता सहज में ही गरल है;
प्रेरणा वैराग्य का अनुराग का कारण सकल है,
प्रेरणा से प्रेम में होता विरह में मन विकल है।
प्रेरणा से शब्द, कविताएं, सकल रचनाएं बनतीं,
भाग्य में हो तो कभी रचनाओं से है कीर्ति मिलती;
कीर्ति किन्तु प्रेरणा का स्रोत बन जाए कवि का,
कीर्ति के बिन नई रचनाएं न बनतीं।
आओ रे मन नई रचनाएं बनाएं
कीर्ति को रचानाओं के आड़े न लाएं
भाग्य में होगा तभी कीर्ति मिलेगी
बन्द होंगी अन्यथा सम्भाबवनाएं॥

अशोक चक्र

हिन्दु को डांटो, डपटो, आरोप लगाओ, मारो काटो,
वीर सदा तुम कहलाओगे
जिहादियों को प्यार करो, उनके जिहाद को उचित बताओ,
आत्मघात से उनके हाथों मारे जाओ
शूरवीर तुम बन जाओगे
उचित हो या अनुचित इसकी परवाह नहीं
किन्तु शहीद तुम कहलाओगे
और मरणोपरान्त शौर्य सम्मान ‘अशोक चक्र’
सहज शासन के हाथों पा जाओगे।

सत्य

सत्य कटु, पीड़ादायक, किन्तु हितकारी होता है;
सरल, सबल, नैसर्गिक, शिव मंगलकारी होता है।
किन्तु आशुफल, तुरत लाभ, हानि का इच्छुक;
मानव झूठी और काल्पनिक सुख की आस संजोता है॥

Thursday, January 22, 2009

मातृभूमि

मैं हिन्दु, हिन्दी भाषी हूं, सदा सभी से मितभाषी हूं।
द्वेष ईर्ष्या नहीं किसी से, सरल विनीत मैं सहवासी हूं॥
संस्कृत और संस्कृति को मैं, पूज्य मान कर चरण पकारूं।
है प्रयास मेरा हिन्दु संस्कारों को जीवन में ढ़ालूं॥
मातृभूमि के ऋण से यूं तो, उऋण नहीं हो सकूं कदाचित।
भाषा संस्कृति की सेवा से, कुछ तो में भी पुण्य कमा लूं॥

Monday, January 5, 2009

कालगति

दिनकर का सम्पूर्ण विश्व को, आलोकित करना फ़िर छिपना;
शशि का मणिसमान तारों संग, निशि में शीतल मन्द महकना।
वृक्षों पर हर वर्ष नई कोंपलें, पत्र पुष्प फल लगना;
झड़ना पतझर में फ़िर, ऋतु परिवर्तन से पल्लवित संवरना।
स्वेदज अण्डज उद्भिज, और जरायुज जीव जन्तु का बनना;
आयु के अनुरूप नित्यप्रति, बढ़ना और अन्तत: मरना।
यही कालगति नैसर्गिक, सम्पूर्ण चराचर में घटती है;
इससे ही सम्पूर्ण विश्व की, सारी गतिविधियां चलती हैं।
काल कर्म के वश में है तो, आओ अपना कर्म संवारें;
मनुज जन्म है कर्म का अवसर, है प्रारब्ध इसीसे बनना।

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डॉ. जय प्रकाश गुप्त शिक्षा- चिकित्सा- स्नातक (महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय रोहतक) पर्यावरण (Environmental Education)- परास्नातक (कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र) पत्रकारिता (Journalism & Mass Comm)- परास्नातक (कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र) PGDT (KUK) चिकित्सकीय वृत्त- Intern- श्री मस्तनाथ सामान्य चिकित्सालय, अस्थलबोहर (रोहतक), सामान्य अस्पताल, अम्बाला छावनी | चिकित्साधिकारी (पूर्व)- जनलाभ धर्मार्थ चिकित्सालय, अम्बाला छावनी, सेवा भारती चिकित्सालय अम्बाला छावनी | चिकित्सक- भगवान महावीर धर्मार्थ चिकित्सालय, अम्बाला छावनी, राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, अम्बाला छावनी | लेखकीय वृत्त- संपादन- महाविद्यालय पत्रिका (आयुर्वेद प्रदीप)- छात्र संपादक (English Section), INTEGRATED MEDICINE (Monthly Medical Magazine) प्रकाशन- कविता- लेख- कहानी- व्यंग्य अनेकों पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित; चिकित्सा, शिक्षा, धर्म, संस्कृति, मनोविज्ञान विषयक १६ शोधपत्र प्रकाशित | समीक्षा- अनेकों कविता संग्रह, लेखमाला ग्रंथों की समीक्षा | अमृतकलश चिकित्सालय, हाऊसिंग बोर्ड कालोनी, अम्बाला छावनी | ईमेल- chikitsak@rediffmail.com, c