Tuesday, February 28, 2012

मैं प्रिया हूँ आपकी, तुम हो मेरे प्रियतम मनोहर
मैं हूँ कविता आपके कविमन को मैंने किया मधुकर
मैं तुम्हारी देवपूजा अर्चना हूँ
आरती के थाल के दीपक की बाती
और घृत मैं ही हूँ प्रियवर !

तुम चिकित्सक हो तो मैं
रोगिणी भी परिचायिका भी
ज्ञात और अज्ञात रोगों का चिकित्सा सार हूँ मैं !!

मैं तुम्हारे हृदय की धक् धक्
ध्वनि बन प्राण जैसी
श्वास औए नि:श्वास की वायु सी
निर्-आकार हूँ मैं !!!

मैं तुम्हारी धमनियों का रक्त बन
संचार करती चेतना का
आपके पौरुष का, यौवन का
सुहृद आधार हूँ मैं !!!!

प्रेरणा हूँ मैं तुम्हारे
प्रेम के सन्मार्ग की, और तुम्हारे
मन में उठती कामना का ज्वार बनती
फिर कला बन चन्द्रमा की शांत करके ज्वार
करती तृप्त सारी एषणा को
और विकसित पूर्ण नैसर्गिक गुणों से
पूर्णिमा का भा-युत प्रकाश हूँ मैं !!!!!

Friday, March 18, 2011

होली की ठिठोली




फागुन मास में लै गईं सखियाँ
कान्हा कू नवनीत बहाने
कालिन्दी में धकेल दियो
कारे कू कारा रंग छुड़ाने

बरसाने में घर के भीतर,
माखन देह पे भाँड दियो तब।
छीन पीतपट पिचकारी ते,
रंग दियो कान्हा गोपिसभा ने॥

मुख और गाल पे हाथन ते,
जो गुलाल मल्यो प्यारी राधा ने।
सब सखियन ने रगड़ दियो,
वाके कपोल होली के बहाने॥

कहा कन्हैया फिर अय्यो,
माखन खाने होरी खेलन कू।
याद रख्यो इन सखियन कू,
वृषभानुसुता और ये बरसाने॥

Thursday, March 17, 2011

ब्रज की होरी


दृश्य १-
होली पे गुलाल सब ग्वाल बाल खेल रहे,
गोपियों ने लीन्हीं आज हाथ पिचकारी है।
गोकुल के ग्वाल- बाल गोपियों से दूर खड़ी,
छोर से निहारे वृषभानु की दुलारी है॥
हाथ पिचकारी नहीं प्रेम रंग में है रंगी,
आई बरसाने से ये राधिका कुमारी है॥।
खोज रही कान्हा कू सुध देह की बिसार,
भीज रही वाकी कञ्चुकी और सारी है॥॥


दृश्य २-
ऊधो बलराम संग फाग का आनन्द लेते,
गोपियों के बीच घिर आए बनवारी हैं।
कोऊ पीतपट खींचे कोऊ है गुलाल मलै,
कोऊ ने है छीन लीन्हीं वाकी पिचकारी है॥


दृश्य ३-
राधिका ने गोपियां हटाय दीन्हीं एक मांहीं,
जाय कान्हां पास वाकी आरती उतारी है।
रंग संग फाग तन खेल रहे राधा- कृष्ण,
सार नन्दगाँव जाय रहा बलिहारी है॥

Thursday, May 14, 2009

हम हिन्दु किसको कहते हैं?

हम हिन्दु किसको कहते हैं?
हम हिन्दु उसको कहते हैं;
जो भारत माता को अपना कहता है,
धमनी में जिसके भारत माता का रक्त ही बहता है,
जो इस धरती का इतहास स्वीकार करे,
जो इस धरती के पुत्रों का वंशज स्वयं को कहता है।

किन्तु हिन्दु वह नहीं जो
भारत मां को अपनी मात न माने,
गौरवशाली निज अतीत को
जो अपना इतिहास न माने,
सम्प्रदाय मजहब के चक्कर में
जो अपनी जात न माने,
भारत मां के मान बिन्दुओं
को अपनी सौगात न माने।

पन्थ सम्प्रदाय या जाति
हिन्दु की पहचान नहीं है,
वह हिन्दु क्या जिसको मानव जाति का
सम्मान नहीं है।

भारत भू पर रहता हो
इसके टुकड़ों पर पलता हो,
है अहिन्दु वह निश्चित ही
चाहे कोई भी भारतवासी,
जो हिन्दु संस्कृति- संस्कारों को
और हिन्दु विचार न माने॥

Monday, May 11, 2009

ये अभागा राष्ट्र

मैं रहा सीमित
मेरे संसाधनों में,
अचाहा अतिरिक्त
जैसे परिजनों में; मेरे व्रत मेरी कसौटी
शुभ्र है मैं जानता हूं,
किन्तु ये सब व्यर्थ है
अधुना मनों में।
मेरे हृद् में राष्ट्र की संवेदना है
तीव्र जाग्रत सांस्कृतिक संचेतना है,
ये अभागा राष्ट्र किन्तु सुप्त है क्यों?
मन को मेरे भेदती ये वेदना है॥

Friday, February 20, 2009

‘मातृ देवो भव’

जिस नारी का स्पर्श जगाता काम भाव पुरुषों के मन में,
अथवा होता शील भंग नर का जिसके केवल दर्शन में।
उग्र रूप देवी का भय उपजाता है दानव को रण में,
शान्त स्वरूपा वह नारी हर सकती पीड़ा को इक क्षण में॥
जिन उत्तुंग हिमशिखों की ज्वाला भस्मित करती है मोहन में,
शिशु की विकल क्षुधा का पोषक क्षीर भरा उस पावन स्तन में॥।
नारी ही ब्रह्मा का मूर्त्तरूप धरे प्रकटी धरती पर,
विष्णु रूप नारी ही करती है उपकार सदा मानव पर,
शिव स्वरूप में नारी है कल्याणमयी मां,
स्वयं हलाहल पीती शिशु की प्राणमयी मां।
यों ही नहीं ‘मातृ देवो भव’ कहा ऋषि ने,
पूज्य मान पूजा की थी साकार ऋषि ने,
नारी जहां हो पूजित वहां देव बसते हैं,धर्मशास्त्र के शब्द सदा ये ही रटते हैं॥

Friday, February 13, 2009

Valentine Day.

मर्यादा और शील न छोड़ो, निज संस्कृति से नाता जोड़ो,
अनुचित है इसको अपनाना, छोड़ो valentine को छोड़ो।

आड़ में इसके भारतीयता घुट अपना दम तोड़ रही है,
पश्चिम की बेमेल विकृति हमें कहां ला मोड़ रही है;
तनिक ठहर कर सोचो तो फिर चाहे जहां स्वयं को मोड़ो,
अनुचित है इसको अपनाना, छोड़ो valentine को छोड़ो।

भाई बहन का रक्षा बन्धन होली का निष्पाप मनाना,
भैय्या दूज के दिन बहना का भाई के माथे तिलक लगाना;
अन्य अनेक पर्वों पर संबंध शीलता से तुम जोड़ो,
अनुचित है इसको अपनाना, छोड़ो valentine को छोड़ो।


है कोई सभ्यता जहां हो करवा चौथ सदृश व्रत उत्तम,
कैसे जग को पिला जलामृत यहां नारियां रहतीं जल बिन;
इन्ही व्रतों उपवासों सा कुछ नया ही तुम आयाम टटोलो,
अनुचित है इसको अपनाना, छोड़ो valentine को छोड़ो।

valentine प्यार नहीं है, ये अच्छा संस्कार नहीं है,
valentine जो होता है, प्यार का वह व्यवहार नहीं है
व्यवहारिकता के लिये सही प्यार को इसमें नहीं सिकोड़ो,
अनुचित है इसको अपनाना, छोड़ो valentine को छोड़ो।

About Me

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डॉ. जय प्रकाश गुप्त शिक्षा- चिकित्सा- स्नातक (महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय रोहतक) पर्यावरण (Environmental Education)- परास्नातक (कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र) पत्रकारिता (Journalism & Mass Comm)- परास्नातक (कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय, कुरुक्षेत्र) PGDT (KUK) चिकित्सकीय वृत्त- Intern- श्री मस्तनाथ सामान्य चिकित्सालय, अस्थलबोहर (रोहतक), सामान्य अस्पताल, अम्बाला छावनी | चिकित्साधिकारी (पूर्व)- जनलाभ धर्मार्थ चिकित्सालय, अम्बाला छावनी, सेवा भारती चिकित्सालय अम्बाला छावनी | चिकित्सक- भगवान महावीर धर्मार्थ चिकित्सालय, अम्बाला छावनी, राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, अम्बाला छावनी | लेखकीय वृत्त- संपादन- महाविद्यालय पत्रिका (आयुर्वेद प्रदीप)- छात्र संपादक (English Section), INTEGRATED MEDICINE (Monthly Medical Magazine) प्रकाशन- कविता- लेख- कहानी- व्यंग्य अनेकों पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित; चिकित्सा, शिक्षा, धर्म, संस्कृति, मनोविज्ञान विषयक १६ शोधपत्र प्रकाशित | समीक्षा- अनेकों कविता संग्रह, लेखमाला ग्रंथों की समीक्षा | अमृतकलश चिकित्सालय, हाऊसिंग बोर्ड कालोनी, अम्बाला छावनी | ईमेल- chikitsak@rediffmail.com, c